विकास की अवस्थाएं | हरलॉक के अनुसार विकास की अवस्थाएं

आप इस टॉपिक में पढ़ने वाले हैं – विकास की अवस्थाएं। इस टॉपिक में बालक के विकास से संबंधित सभी अवस्थाओं पर फोकस किया गया है जैसे –  गर्भावस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था। मैंने सभी  टॉपिक को अच्छी तरह से समझाया है।

 

विकास की अवस्थाएं :- 

बालक के विकास की प्रक्रिया को अलग-अलग अवस्थाओं में बांटा गया है। विकास की प्रत्येक अवस्था दूसरी अवस्था से अलग होता है। बालक हर एक-दूसरी विकास की अवस्था में अलग-अलग विकास का कार्य सीखता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है। विकास के सभी अवस्थाओं को उम्र के अनुसार बांटा गया है। 

 

विकास का जब पहली अवस्था ख़त्म हो रहा होता है तथा विकास की दूसरी अवस्था प्रारंभ हो रहा होता है तो पहली अवस्था को समाप्त होने और दूसरी अवस्था को शुरू होने के कुछ समय बाद बालकों में दोनों लक्षण पाया जाता है।

हरलॉक के अनुसार विकास की अवस्थाएं

हरलॉक के अनुसार विकास की अवस्थाएं :- 

1. गर्भकालीन अवस्था – यह गर्भधारण से जन्म तक का होता है।

2. शैशवावस्था – यह अवस्था जन्म से 14 दिनों तक का होता है।

3. बचपनावस्था – यह अवस्था 14 दिनों के बाद से 2 वर्ष तक का होता है।

4. पूर्व बाल्यावस्था – यह अवस्था 3 वर्ष से 6 वर्ष तक का होता है।

5. उत्तर बाल्यावस्था – यह अवस्था 6 वर्ष से 14 वर्ष तक का होता है।

6. पूर्व किशोरावस्था – यह अवस्था 11 वर्ष से 17 वर्ष तक का होता है।

7. किशोरावस्था – यह अवस्था 17 वर्ष से 21 वर्ष तक का होता है।

8. प्रौढ़ावस्था – यह अवस्था 21 वर्ष से 40 वर्ष तक का होता है।

9. मध्यावस्था – यह अवस्था 40 वर्ष से 60 वर्ष तक का होता है।

10. वृद्धावस्था – यह अवस्था 60 वर्ष से जीवन के अंत तक का होता है।

 

विकास की अवस्थाओं का वर्णन इस प्रकार से किया गया है :-

1. गर्भकालीन अवस्था :- यह अवस्था गर्भधारण से लेकर जन्म तक का अवस्था होता है। इस अवस्था में अन्य दूसरों की अपेक्षा विकास की गति सबसे अधिक होता है। गर्भकालीन अवस्था में विकास अधिकांशतः बच्चे के शरीर में होता है।

 

विकास प्रक्रिया के अध्ययन के दृष्टिकोण से इसकी तीन उप अवस्थाएं हैं :-

i ) बीजावस्था – यह अवस्था गर्भधारण के समय से लेकर दो सप्ताह तक का होता है। बीजावस्था में शिशु का आकार अंडाणु के समान होता है। इसमें बाहर से कोई विशेष बदलाव दिखाई नहीं देता है। लेकिन उसके शरीर के अंदर विभाजन की क्रिया होता रहता है।

 

इस अवस्था में लगभग 10 दिनों तक उसके माँ से कोई भोजन के रूप में आहार प्राप्त नहीं होता है। लेकिन कुछ समय बाद यह शिशु गर्भाशय की दीवार से जुड़ जाता है और उसे भोजन के रूप में आहार प्राप्त होने लगता है। 

 

ii ) भ्रूणावस्था – यह अवस्था दो सप्ताह से लेकर आठ सप्ताह तक का होता  है। इस अवस्था को जीव भ्रूण कहा जाता है। भ्रूण अवस्था में शरीर के मुख्य अंगों का निर्माण होता है। दूसरे महीने के अंत तक शिशु का वजन दो ग्राम हो जाता है और शिशु की लम्बाई एक इंच से लेकर दो इंच तक हो जाता है। 

 

भ्रूण की बाहरी परत में त्वचा, नाख़ून, दांत आदि का निर्माण होता है। भ्रूण के मध्य परत में मांसपेशियां का निर्माण होता है। भ्रूण की तीसरी परत आंतरिक परत कहलाता है। जिसमें लिवर, फेफड़ा, पाचन अंगों और इन्द्रियों का निर्माण होता है।

 

iii ) गर्भस्थ शिशु की अवस्था – यह अवस्था निषेचन से आठ सप्ताह तक का होता है। गर्भस्थ शिशु की अवस्था में सभी प्रमुख अंग काम करने लगता है जैसे – फेफड़ा, ह्रदय आदि। अगर सात महीने तक का शिशु भी जन्म लेता है तो वह जीवित रह सकता है।

 

2. शैशवावस्था :- शैशवावस्था जन्म से 14 दिन का होता है। शैशवावस्था में शिशु को नवजात शिशु कहा जाता है। इस अवस्था में शिशु को बाहरी वातावरण में घुमाया जाता है। इस अवस्था में शिशु अनेक तरह की क्रियाएं करता है जैसे चूसना, उत्सर्जन, निगलना इत्यादि।

 

शैशवावस्था की विशेषता कुछ इस प्रकार से है :-         

I ) यह बालक के लिए अत्यंत संकट की अवस्था है। इसमें अत्यंत सावधानी की आवश्यकता होती है। जरा – सी असावधानी होने से बालक को वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने में गंभीर कठिनाई भी हो सकती है।

 

II ) शैशवावस्था में शिशु को बाहरी वातावरण के साथ अधिक समायोजन करना पड़ता है क्यूंकि वह इस बाहरी वातावरण के संपर्क में पहली बार आता है।

 

III ) शिशु का विकास इस कारण पर भी निर्भर करता है कि शैशवावस्था में शिशु किस प्रकार बाहरी वातावरण के साथ समायोजन कर रहा है।

 

IV ) इस अवस्था में शिशु के वजन में कुछ कमी भी आ जाती है क्यूंकि वह बाहरी वातावरण के साथ समायोजन करने की कोशिश करता है।

 

VI ) इस अवस्था में शिशु को बहुत ध्यान से रखना चाहिए क्यूंकि थोड़ी भी असावधानी से शिशु को कठिनाई हो सकती है। शिशु के लिए बाहरी वातावरण से समायोजन बनाना एक नया क्रिया होता है।

 

3. बचपनावस्था : – तीसरे सप्ताह से दो वर्ष तक के अवस्था को बचपनावस्था कहा जाता है । इस अवस्था में बालक अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए दूसरे पर आश्रित होता है।  इस अवस्था में बालक के विकास का  गति तेज होता है। 

 

बालक धीरे-धीरे अपने मांसपेशियों पर control करने लगता है। वह अब कुछ काम खुद से करने लगता है जैसे – खाना खाना, खेलना, चलना, हंसना, इत्यादि। ज्यादातर बालक में याददाश्त शक्ति का विकास होने लगता है।

 

4. बाल्यावस्था :- बाल्यावस्था मानव जीवन का सुनहरा समय होता है जिसमें बालक का शारीरिक, सामाजिक और मानसिक विकास होता है। 

 

फ्रायड का कहना है कि बालक का विकास पांच वर्ष तक की अवस्था में हो जाता है और इस अवस्था में विकास अन्य अवस्था की अपेक्षा बहुत तेजी से होता है। 

 

शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का शुरुआत होता है। इस अवस्था में बालक का व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस अवस्था में बालक में अलग-अलग भावनाओं, रुचि, व्यवहार, इच्छा का निर्माण होता है।

 

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विकास की अवस्थाएं का निष्कर्ष :- विकास की 10 अवस्थाएं हैं। इससे Exam में प्रश्न पूछे जाते हैं अगर आप इसे अच्छी तरह से पढ़ लिए हैं तो इस टॉपिक से सम्बंधित कोई भी किताब पढ़ने की जरुरत नहीं है।
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