मैं आज के इस टॉपिक में आपको एरिक्सन का सिद्धांत के बारे में बताने जा रहा हूँ। इनके अनुसार हमारा पूरा जीवन आठ विभिन्न अवस्था से गुजरता है। इन सभी के बारे में हम अभी नीचे पढ़ने वाले हैं।
मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत एरिक्सन ने दिया था। इस सिद्धांत को अंग्रेजी में Psycho-Social Development Principle कहते हैं।
एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत ( Erikson Ka Siddhant ) : –
इस सिद्धांत को अमेरिका के मनोवैज्ञानिक ‘इरिक एरिक्सन’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इनका जन्म जर्मनी में हुआ था। इस सिद्धांत का प्रमुख उद्देश्य बच्चों में व्यक्तिगत पहचान को करने से था। इनके इस मनोसामाजिक सिद्धान्त को एरिक्सन का सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धांत में छात्रों के सांवेगिक स्वास्थ्य पर अधिक बल दिया गया है।
एरिक्सन के सिद्धांत को कुछ मनोवैज्ञानिकों ने जीवन अवधि का सिद्धांत भी कहा है।
‘एरिक्सन’ को नव्य फ्रायडवादी माना जाता है क्योंकि एरिक्सन, सिगमंड फ्रायड के विचारों से काफी हद तक सहमत थे। लेकिन एक बात पर सहमत नहीं थे एरिक्सन का मानना है कि बालक के विकास उसकी काम प्रवृति का नहीं, बल्कि सामाजिक अनुभूतिओं का प्रभाव पड़ता है।
एरिक्सन के अनुसार प्रत्येक अवस्था के धनात्मक (Positive) तथा नकारात्मक (Negative) दोनों पक्ष होते हैं, उन्होंने अपने सिद्धांत में जीवन का आठ 8 चरणों से होकर गुजरना बताया है : –
वर्ष अवस्था
1. 0 – 2 – विश्वास बनाम अविश्वास की अवस्था
2. 2 – 3 – स्वायत्ता बनाम शर्म / शक की अवस्था
3. 3 – 6 – पहल बनाम दोष की अवस्था
4. 6 – 12 – परिश्रम बनाम हीनता की अवस्था
5. 12 – 18 – पहचान बनाम भ्रांति की अवस्था
6. 18 – 35 – आत्मीयता बनाम अलगाव की अवस्था
7. 35. – 65 – जननात्मकता बनाम स्थिरता की अवस्था
8. 65 के बाद – सम्पूर्णता बनाम निराशा की अवस्था
एरिक एरिकसन का सिद्धांत क्या समझाता है ?
यह सिद्धांत समझाता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास 5 वर्ष की आयु के बाद भी होते रहता है। व्यक्तित्व का विकास ईमानदारी, विश्वास और नैतिक जैसे अस्तित्व संबंधित समस्याओं के समाधान के लिए है।
मनोसामाजिक सिद्धांत के अनुसार एरिक्सन का कहना है कि मनुष्य को बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक पहुँचने में 8 चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। इसका परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक हो सकते हैं।
एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत सबसे अधिक सामाजिक रिश्ते पर बल देता है। मनोसामाजिक सिद्धांत को आप सामाजिक विकास का सिद्धांत के साथ कंफ्यूज नहीं करना। दोनों सिद्धांत बिलकुल अलग है। सामाजिक विकास का सिद्धांत वाइगोत्सकी ने दिया था।
1. विश्वास बनाम अविश्वास (Trust vs Mistrust) – इस चरण की अवधि बालक के जन्म से लेकर लगभग दो (2) वर्ष तक होती है। इसके अनुसार जिन बालकों को माता-पिता से प्यार मिलता है, उनमें विश्वास विकसित होता है।
वहीं दूसरी तरफ जिन बालकों को माता-पिता का प्यार आदि नहीं मिलता तो वह रोना शुरू कर देते हैं, और इससे उनमें अविश्वास की भावना पैदा होती है। जिससे दूसरों के बारे में शक तथा दूसरों से अनावश्यक डर उत्पन्न हो जाता है।
2. स्वायत्ता बनाम शर्म / शक (Autonomy vs Shame/Doubt) – इस चरण की अवधि दो (2) वर्ष से लेकर तीन (3) वर्ष तक बताई गई है। इस बिंदु पर माता – पिता को बच्चों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके अंतर्गत जब बालक दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहते हैं, अर्थात खुद से खाना, कपड़े पहनना पसंद करते हैं तो यह स्वायत्ता कहलाती है।
दूसरे बहुत सख्त माता – पिता या वैसे माता – पिता जो प्रायः बच्चों को साधारण कार्य करने के लिए डांटते या पीटते हैं, तो ऐसे बच्चों को अपनी क्षमता पर शक होने लगता है, तथा वे अपने ही अंदर से लज्जा या शक का अनुभव करते हैं।
3. पहल बनाम दोष (Initiative vs Guilt) – इस चरण की अवधि तीन (3) वर्ष से छः (6) वर्ष तक होती है। इस अवधि में बालक में समझने की क्षमता थोड़ी विकसित हो जाती है, और उसमें जिज्ञासा बढ़ने लगती है। इस जिज्ञासा की वजह से वह पहल करना शुरू करता है।
माता – पिता को चाहिए की वे उनके प्रयास की सराहना करें। दूसरी तरफ यदि माता – पिता बच्चे की इस पहल की आलोचना करते हैं, उन्हें दंडित करते हैं या डांटते हैं तो इससे बच्चों में दोष – भाव उत्पन्न हो जाता है।
4. परिश्रम बनाम हीनता (Industry vs Inferiority) – यह अवस्था छः (6) वर्ष से लेकर बारह (12) वर्ष तक के बच्चों में पाई जाती है। इस अवस्था में बालक माता-पिता का हर काम करने का प्रयास करता है, जिसे परिश्रम कहते हैं। दूसरी तरफ यदि माँ-बाप द्वारा बालक की क्षमता से अधिक कार्य बालक को दिया जाता है, और वह उसे नहीं कर पाता तो इससे बालक में हीन भावना आती है।
5. पहचान बनाम भ्रांति (Identity vs Confusion) – यह अवस्था बारह (12) वर्ष से अट्ठारह (18) वर्ष तक होती है। इस अवस्था तो किशोर अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में किशोरों में यह जानने की प्राथमिकता बनी रहती है कि कौन हैं, वे किसलिए हैं, और वे अपनी जिंदगी में कहाँ जा रहे हैं। इनमें बालकों में अपनी पहचान बनाने की उत्सुकता ज्यादा होती है।
वहीं दूसरी तरफ जब वह उद्देश्य के अनुरूप कार्य नहीं करते तो उनके पास बहुत सारे रास्ते खुल जाते हैं। जब किशोर अपने भविष्य का रास्ता नहीं निश्चित कर पाते हैं, तो वे भ्रांति ( Confusion ) की स्थिति में आ जाते हैं।
6. आत्मीयता बनाम अलगाव (Intimacy vs Isolation) – यह अवस्था 18 से 35 वर्ष की आयु में पाई जाती है। इस अवस्था में व्यक्ति एक – दूसरे के साथ धनात्मक सम्बन्ध बनता है। जब व्यक्ति में एक – दूसरे के साथ घनिष्ठता का भाव विकसित होता है, तो वह अपने – आपको दूसरों के लिए समर्पित कर देता है।
दूसरी तरफ जब आदमी घनिष्ठ संबंध नहीं बना पाता तथा वह सबसे अलग रहता है, तो उसे अलगाव कहते हैं। और उनके लिए यह अकेलापन जिंदगी एक काली संस्था के समान होती है।
7. जननात्मकता बनाम स्थिरता (Generativity vs Stagnation) – यह अवस्था 35 वर्ष की आयु से 65 वर्ष तक मानी जाती है। जननात्मकता में व्यक्ति द्वारा अगली पीढ़ी के लोगों के कल्याण तथा उस समाज के लिए सोचते हैं जिसमें वे लोग रहेंगे।
दूसरों का भला करने की सोचते हैं। जब लोगों में इस सोच का विकास नहीं हो पाता है तो इससे उनमें स्थिरता आ जाती है और उन्हें लगता है कि वे अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ नहीं कर सके।
8. सम्पूर्णता बनाम निराशा (Integrity vs Despair) – यह अवस्था 65 वर्ष से ऊपर के आदमियों में पाई जाती है। इस आयु वर्ग को प्रौढ़ावस्था के नाम से भी जाना जाता है। इस उम्र में आदमी की अधिकतम इच्छाएं पूर्ण हो चुकी होती हैं।
अब वह अपने भविष्य की बजाय अपने बीते हुए दिनों को याद करता है कि उसने अपने जीवन काल में कितनी सफलता हासिल की और उसे कितनी असफलता मिली। उनकी सफलता ज्यादा है तो उसे सम्पूर्णता कहते हैं। और यदि वह जीवन में बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए तो उसे निराशा कहते हैं।
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Conclusion ( सारांश ) :- हमें उम्मीद है कि आप एरिक्सन का सिद्धांत को अच्छी तरह से पढ़ लिए हैं। इस टॉपिक में 8 अवस्थाओं को विस्तार से समझाया गया है। आप इस टॉपिक के अलावा Teaching के अन्य टॉपिक के लिए GurujiAdda.com पर खोज सकते हैं।