आज मैं आपके समक्ष एक कठिन टॉपिक को आसान शब्दों में लेकर आया हूँ। इस टॉपिक का नाम है – बाल्यावस्था की विशेषताएँ। हमलोग एक-एक पॉइंट्स को बहुत ही बारीकी से समझेंगे। मैं आपको इतने अच्छे से समझाने वाला हूँ कि शिक्षक परीक्षा में अच्छे नंबर लाने के लिए इस टॉपिक को रटना नहीं पड़ेगा।
सामान्यतः 6 से 12 वर्ष की अवधी को बाल्यावस्था माना जाता है। इस काल में बालक का शारीरिक और मानसिक विकास के साथ उसका सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और संवेगात्मक विकास भी होता है।
विकास की चार अवस्थाएं में से बाल्यावस्था बहुत महत्वपूर्ण अवस्था है। इसी उम्र में बच्चा विद्यालय जाना शुरू करता है। तो हम कह सकते हैं कि इस उम्र में बालक का अनौपचारिक शिक्षा के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा शुरू हो जाता है।
बाल्यावस्था की विशेषताएँ ( Balyavastha Ki Visheshtaen ) :-
शारीरिक विकास – बालक के शारीरिक विकास में होने वाले परिवर्तन विभिन्न चरणों में होता है। शैशवावस्था में बालक की शारीरिक मोटाई कम होने लगती है। बाल्डविन के अनुसार बालक जन्म के समय 52 cm, पांच वर्ष की आयु में 106 cm, नौ वर्ष की आयु 131 cm और तेरह वर्ष की आयु में 151 cm हो जाती है।
बाल्यावस्था में बालक का दूध के दांत झरने लगते हैं और स्थाई दांत जमना शुरू हो जाता है। 11 वर्ष की अवस्था में लड़कियां लड़कों से अधिक लम्बी हो जाती है।
सामाजिक विकास – बाल्यावस्था में बालक का सामाजीकरण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में बालक क्या, कौन, क्यों, कैसे जैसे प्रश्नों पर विचार करने और पूछने लगता है। इस अवस्था में बालक अपना कार्य स्वयं करने लगता है। वह शैशवावस्था की तरह दूसरों पर आश्रित नहीं रहता है।
बालक जब 11 या 12 वर्ष की आयु में होता है तो वह सामूहिक खेलों में भाग लेने लगता है। बालक समूह के कप्तान के बातों को मानने लगता है। इस अवस्था में बालक में सहनशीलता, आज्ञा पालन, सहयोग और आत्मविश्वास की भावना आदि गुणों का विकास होता है।
बालक अपने समूह की भाषाओं और इशारों को भली भांति समझने लगते हैं। बाल्यावस्था में इतनी समझ नहीं होती है जितनी की किशोरावस्था में होती है।
संवेगात्मक विकास – बाल्यावस्था में बालक के संवेग में स्थिरता आ जाती है। बालक भय और क्रोध को नियंत्रित करना सीख जाता है। इस अवस्था में बालक में सामाजिक गुणों का विकास होने लगता है। जैसे – सहयोग, सदभावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता इत्यादि।
अगर बच्चों में दो वर्ष की आयु में वे सभी संवेग विकसित हो जाए जो एक प्रौढ़ व्यक्ति में होते हैं तो बालक अच्छी और बुरी भावनाओं में सही तरह से अंतर कर सकता है। उसे डर और भय नहीं लगता है।
जिज्ञासा की प्रबलता – बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के संपर्क में आता है, उसके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। उसके ये प्रश्न शैशवावस्था के साधारण प्रश्नों से भिन्न होते हैं। शिशु के समान नहीं पूछता है।
वास्तविक जगत के सम्बन्ध – इस अवस्था में बालक, शैशवावस्था के काल्पनिक जगत का परित्याग करके वास्तविक जगत में प्रवेश करता है। वह उसकी प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
रचनात्मक कार्यों में आनंद – बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनंद आता है। यह साधारणतः घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है, जैसे – बगीचे में काम करना या औजारों से लकड़ी की वस्तुएं बनाना। इसके विपरीत, बालिका घर में ही कोई – न – कोई कार्य करना चाहती है, जैसे पिरोना या कढ़ाई करना।
नैतिक गुणों का विकास – इस अवस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। स्ट्रांग के अनुसार – ‘ छः, सात और आठ वर्ष के बालकों में अच्छे-बुरे के ज्ञान का विकास होने लगता है।’
बहिर्मुखी व्यक्ति का विकास – शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अंतर्मुखी होता है, क्योंकि वह एकांतप्रिय और केवल अपने में रूचि लेने वाला होता है। इसके विपरीत, बाल्यावस्था में उनका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है, क्योंकि बाह्य जगत में उसकी रूचि उत्पन्न हो जाती है। अतः वह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं और कार्यों का अधिक-से-अधिक परिचय प्राप्त करना चाहता है।
संवेगों का दमन व प्रदर्शन – बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना अच्छी और बुरी भावनाओं में अंतर करना सीख जाता है। वह उन भावनाओं का दमन करता है, जिनको उनके माता – पिता और बड़े लोग पसंद नहीं करते हैं, जैसे काम – सम्बन्धी भावनाएं।
संग्रह करने की प्रवृति – बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृति बहुत ज्यादा पाई जाती है। बालक विशेष रूप से कांच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थर के टुकड़ी का संचय करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुड़ियों और कपड़ों के टुकड़ों का संग्रह करने की प्रवृति पाई जाती है।
निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति – बालक में बिना किसी काम का इधर-उधर-घूमने की प्रवृत्ति बहुत होती है। मनोवैज्ञानिक बर्ट कहते हैं कि लगभग 9 वर्ष के बालकों में आवारा घूमने, बिना छुट्टी लिए विद्यालय से भागने और आलस्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती है।
काम-प्रवृत्ति की न्यूनता – इस अवस्था में बालक में काम-प्रवृत्ति की न्यूनता होती है। वह अपना अधिकांश समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने में व्यतीत करता है। अतः यह बहुत ही कम अवसरों पर अपनी काम-प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर पाता है।
बाल्यावस्था की अन्य विशेषताएँ :-
1. बाल्यावस्था को बालक के शिक्षा प्रारंभ करने की उत्तम अवस्था मानी जाती है। इस अवस्था में बालक में मानसिक योग्यताएं विकसित होने लगती है। बालक में समझने, कल्पना करने जैसी योग्यताएं विकसित हो जाती है।
2. बाल्यावस्था में बालक काल्पनिक जगत से निकल कर वास्तविक जगत में विचरण करने लगता है। इस अवस्था में बालक रचनात्मक कार्यों में रुचि लेने लगता है जैसे – मिट्टी के बर्तन बनाना, चित्र बनाना, गुड़िया बनाना, रंगीन कपड़े या कागज़ से फूल बनाना इत्यादि।
3. बाल्यावस्था में बालक के संवेग में स्थिरता आ जाती है। बालक भय और क्रोध को नियंत्रित करना सीख जाता है। इस अवस्था में बालक में सामाजिक गुणों का विकास होने लगता है। जैसे – सहयोग, सदभावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता इत्यादि।
4. बाल्यावस्था में बालक का बहुमुखी विकास होने लगता है। बालक बाहर घूमना, वस्तुओं को देखना, दूसरों के प्रति जानकारी प्राप्त करना इत्यादि में रूचि लेने लगता है।
5. 6 से 7 वर्ष की आयु में बालक में शारीरिक और मानसिक स्थिरता आ जाती है इस सन्दर्भ में रॉस का कहना है कि शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।
6. बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनंद आता है। वह साधारणतः घर से बाहर किसी अन्य प्रकार का कार्य करना चाहता है। इस अवस्था के प्रारंभ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है।
7. बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगती है। बालक विशेष रूप से कांच की गोलियां तथा पत्थर के टुकड़े का संचय करता है। वहीं बालिकाओं में चित्रों, खिलौने आदि के संग्रह करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगती है।
8. बालक में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति अधिक होती है। लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में आवारा की तरह घूमना, बिना छुट्टी लिए विद्यालय से भागना आदि जैसी प्रवृत्ति पाई जाती है।
9. इस अवस्था को निर्माणकारी काल माना जाता है। बच्चे में विभिन्न तरह के रूचि, आदत, व्यवहार का निर्माण होता है।
10. इस अवस्था में बने हुए आदत और रूचि लगभग स्थायी होता है। इसको बहुत आसानी से बदला नहीं जा सकता है। ये आदतें उसके आने वाले जीवन के लिए तैयार करता है।
11. इस अवस्था को औपचारिक शिक्षा शुरू करने के लिए सबसे उपयुक्त अवस्था मानी जाती है। बालक का शिक्षा के स्वरुप के निर्धारण में उसके माता-पिता, शिक्षक और समाज महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
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1. निर्देशन से आप क्या समझते हैं ?
2. बाल विकास से आप क्या समझते हैं ?
निष्कर्ष – इस टॉपिक में मुख्य रूप से बाल्यावस्था की विशेषताएँ के बारे में जानकारी दिया गया है। जैसे – इस अवस्था में बालक में किस प्रकार के विचार उत्पन्न होते है, वे क्या करना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं – ऊपर दिए गए टॉपिक में आपको पढ़ने के लिए मिले होंगे।