ब्रूनर का सिद्धांत ( Bruner Ka Siddhant ) बाल मनोविज्ञान का एक महत्वपूर्ण टॉपिक है। इसे बुक से समझना थोड़ा कठिन हो जाता है। इसलिए मैंने इसे आसान भाषा में लिख कर समझने की कोशिश किया है।
ब्रूनर का संज्ञानात्मक सिद्धांत ( Bruner Ka Siddhant ) : –
जेरोम ब्रूनर अमेरिका के एक महान मनोवैज्ञानिक हुए। इन्होंने संज्ञानात्मक विकास पर नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जो कि जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के विकल्प के रूप में माना जाता है।
पियाजे ने “जैवीय परिपक्वता” पर अधिक बल दिया, जबकि ब्रूनर ने कहा कि “बच्चा एक नग्न बंदर की तरह नहीं है, अपितु संस्कृतियुक्त मानव की तरह है। संस्कृति के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है।”
ब्रूनर का सिद्धांत ( Bruner Ka Siddhant ) क्या है ?
ब्रूनर ने संस्कृति और वातावरण को अधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि, मनुष्य उन बातों को अधिक सीखने का प्रयास करता है जो वास्तविक हैं या वास्तविकता से काफी नजदीक होती हैं।
मनुष्य द्वारा वास्तिवकता को पहचानने के लिए ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास के तीन स्तर बताएं।
1. अधिनियम (Enactive) या क्रियात्मक अवस्था
2. प्रतिबिम्बात्मक (Iconic) अवस्था
3. संकेतात्मक (Symbolic) अवस्था
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आगमन निगमन विधि ( Aagman Nigman Vidhi )
ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के स्तर : –
ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के तीन स्तर होते हैं। ब्रूनर के अनुसार बालक सर्वप्रथम क्रियात्मक अवस्था में संज्ञानात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। उसके बाद बालक प्रतिबिम्बात्मक अवस्था में ज्ञानात्मक चिंतन व अंत में संकेतों या शब्दों द्वारा चिंतन करते हैं।
1. क्रियात्मक अवस्था – इसके अनुसार बालक क्रिया करके सीखने का प्रयास करता है। जैसे – हाथ-पैर चलाना, साइकिल चलाना इत्यादि।
इस अवस्था में मानसिक प्रतिक्रिया या भाषा का महत्व नहीं होता है। किसी वस्तु को समझने के लिए उसे पकड़ना, मरोड़ना, रगड़ना, काटना, तोड़ना, छूना व पटकना होता है। किसी भी चीज को सीखने के लिए यें सभी क्रियाएं बालकों के द्वारा की जाती हैं ।
2. प्रतिबिम्बात्मक अवस्था – इसे ‘छायात्मक अवस्था’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके अनुसार चित्र देख कर या कोई दृश्य को देखकर बालक उसे याद कर लेता है।
इसमें मानसिक प्रतिबिम्बों द्वारा सूचनाएं व्यक्ति तक पहुँचती हैं। इसमें बालकों में देखने की शक्ति विकसित हो जाती है। (ब्रूनर की यह अवस्था पियाजे के पूर्व संक्रियात्मक अवस्था से समानता रखती है।)
3. सांकेतात्मक अवस्था – बालक की क्रियात्मक या प्रत्यक्षीकृत समझ प्रतिस्थापन संकेत प्रणाली से होती है। इसके अनुसार बालक भाषा, गणित, तर्क सीखकर उनका उपयोग करते हैं। संकेतों के प्रयोग करने से बालकों में संज्ञानात्मक कार्य क्षमता बढ़ जाती है।
अर्थात बालको को पढ़ाने या समझाने के लिए संकेतों के अधिक प्रयोग किया जाना चाहिए। संकेतों की मदद से जटिल अनुभवों व विचारों को संक्षिप्त कथनों के रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
ब्रूनर के सिद्धांत की शैक्षिक उपयोगिता निम्नलिखित हैं :-
1. शिक्षकों द्वारा शिक्षार्थियों तक ज्ञान का हस्तांतरण किया जाना चाहिए।
2. बालक के सामने ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करनी चाहिए कि बालक स्वयं ज्ञान का निर्माण कर सके।
3. ज्ञान की पर्याप्तता होनी चाहिए। अर्थात सभी तथ्यों का ज्ञान शिक्षक को होना चाहिए। क्योंकि अगर आप में कुशलता होगी तभी बच्चों तक वह कुशलता हस्तांतरित होगी।
4. ज्ञान की उपलब्धि को ध्यान में न रखकर उसकी प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए।
अधिगम एक प्रक्रिया है, यह परिणाम नहीं है।
5. ब्रूनर ने कुंडलिय पाठ्यक्रम का प्रतिपादन किया।
6. ब्रूनर का सिद्धांत बालकों को स्वतंत्र अध्ययन करने, खोज करने, ज्ञान का निर्माण व समस्या का समाधान करने पर बल देता है।
7. बच्चों के भाषायी विकास पर शिक्षकों को विशेष ध्यान देना चाहिए।
8. जटिल बातों को सरलता से व्यक्त करने की कुशलता बालकों को समझने के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी।
9. प्रत्येक पाठ को चिंतन प्रधान बनाना चहिये, क्योंकि अधिगम अपने मूल रूप में चिंतन ही है।
Ques – संज्ञानात्मक सिद्धांत किसने दिया ?
Ans – ब्रूनर ने संज्ञानात्मक का सिद्धांत को दिया था।