शैशवावस्था किसे कहते हैं | शैशवावस्था का महत्व | शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं | शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

आज मैं आप सभी को शैशवावस्था किसे कहते हैं इसके बारे में बताने वाला हूँ। इसके अलावा मैंने शैशवावस्था से संबंधित महत्वपूर्ण टॉपिक को भी विस्तार से समझाने का प्रयास किया है। शैशवावस्था का यह टॉपिक बहुत ही आसान है। इस टॉपिक को समझने के लिए आपको थोड़ा सा ध्यान देने की जरुरत है।

 

शैशवावस्था में आप किस-किस टॉपिक को पढ़ने वाले हैं ?
1. शैशवावस्था किसे कहते हैं ?

2. शैशवावस्था कब से कब तक होती है ?

3. शैशवावस्था का उपनाम क्या है ?

4. शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं क्या है ?

5. शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या है ?

शैशवावस्था किसे कहते हैं

शैशवावस्था किसे कहते हैं ?

बालक के जन्म से 5 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहते हैं। इस अवस्था में बालक की सीखने की गति बाल्यावस्था और किशोरावस्था के योग के बराबर होता है, अर्थात बाल्यावस्था + किशोरावस्था = शैशवावस्था

 

शैशवावस्था कब से कब तक होती है ?

शिशु के जन्म से लेकर 5 वर्ष की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। शैशवावस्था में बच्चों पर ध्यान देने की जरुरत होती है क्योंकि इस अवस्था में बच्चों के विकास पर जितना ज्यादा ध्यान दिया जाता है उसका विकास आने वाले में समय उतना ही अच्छा होता है। 

 

शैशवावस्था के बारे में फ्रायड का कहना है कि मनुष्य को जो कुछ भी बनना है वह चार-पांच वर्ष तक की आयु में बन जाता है।

शैशवावस्था का उपनाम क्या है

शैशवावस्था का उपनाम :-

1. खिलौनों की अवस्था

2. क्षणिक संवेग की अवस्था

3. प्रिय लगने वाली अवस्था

4. अतार्किक चिंतन की अवस्था

5. पराधीन और निर्भरता की अवस्था

6. अनुकरण द्वारा सीखने की अवस्था

7. संस्कारों की निर्माण की अवस्था

8. प्राथमिक विद्यालय तैयारी की अवस्था

 

शैशवावस्था का महत्व के बारे में मनोवैज्ञानिकों के कुछ प्रमुख विचार निम्न प्रकार हैं :-

एडलर – एडलर का कहना है कि बालक के जन्म के कुछ महीने के बाद ही यह कहा जा सकता है कि बालक के जीवन में उसका क्या स्थान रहने वाला है। 

 

स्ट्रांग – स्ट्रांग का कहना है कि बालक का आधार जीवन के प्रथम दो वर्ष में बन जाता है। लेकिन यह जीवन के किसी भी आयु में बदल सकता है। बालक का प्रवृति और प्रतिमान हमेशा वही रहता है। 

 

गुडएनफ – गुडएनफ का कहना है कि मनुष्य  का मानसिक विकास का 50 प्रतिशत तीन वर्ष तक हो जाता है।

 

वैलेंटाइन – वैलेंटाइन शैशवावस्था को आदर्श काल कहा है क्योंकि बालक शैशवावस्था में तीव्र गति से सीखता है। 

 

हरलॉक – हरलॉक ने शैशवावस्था को खतरनाक काल और अपीली काल कहा है क्योंकि इस अवस्था में बालक की मृत्यु बाल्यावस्था और किशोरावस्था की अपेक्षा सबसे ज्यादा होती है।

 

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं : –

शैशवावस्था की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण  विशेषताएं निम्न प्रकार से हैं :-

1. शारीरिक विकास में तीव्रता – शिशु के जीवन का प्रथम तीन वर्षों में शारीरिक विकास बहुत तीव्र गति से होता है। पहला वर्ष में शिशु का लम्बाई तथा भार दोनों में तीव्र गति से वृद्धि होता है। शिशु का कर्मेन्द्रियों, आंतरिक अंगों और मांसपेशियों का भी विकास होता है। ( कर्मेन्द्रियों – वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ )

 

2. मानसिक क्रियाओं में तीव्रता – शिशु का मानसिक क्रियाओं का विकास तीव्र गति से होता है जैसे – ध्यान, स्मृति, कल्पना, प्रत्यक्षीकरण, संवेदना, आदि । तीन वर्ष की आयु में शिशु का लगभग सभी मानसिक शक्तियां भली-भांति कार्य करने लगता है।  

 

3. सीखने में तीव्रता – शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है। शिशु बताई गई बातों को बहुत जल्दी सीख लेता है।

 

4. दोहराने की प्रवृत्ति – शैशवावस्था में शिशु में शब्दों, वाक्यों अथवा क्रियाओं को बार – बार दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। दोहराने में शिशु एक प्रकार के आनंद का अनुभव करता है।

 

5. दूसरों पर निर्भरता – शिशु जन्म से कुछ समय बाद तक असहाय स्थिति में होता है। वह अपने माता – पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर रहता है। खाना-पीना, कपड़ा  पहनना, बिस्तर पर लेटना आदि सभी कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। वह अपनी माँ पर ज्यादा निर्भर रहता है। शिशु प्रेम, सुरक्षा, स्नेह,आदि के लिए माता-पिता या अन्य बड़े लोगों पर निर्भर रहता है।

 

8. सामाजिक भावना का विकास – शिशु 4 – 5 महीने का होता है तो वह दूसरे बच्चों की ओर आकर्षित होता है। 10 – 11 महीने का शिशु खेलने में व्यस्त रहता है। 11 – 12 महीने का शिशु दूसरों को तंग करके अपना मनोरंजन करता है।

 

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शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप : –

मानव जीवन में शिक्षा की दृष्टि से शैशवावस्था बहुत महत्वपूर्ण है। इस अवस्था को वैलेंटाइन ने सीखने का आदर्श काल कहा है। वाटसन का शैशवावस्था के बारे में कहना है कि इस अवस्था में बालक के सीखने का गति तीव्र होता है। 

 

शैशवावस्था में शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में निम्नलिखित बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए :-

1. स्नेहपूर्ण व्यवहार – इस अवस्था में शिशु स्नेह का भूखा होता है। शिशु इस अवस्था में दूसरों के ऊपर निर्भर होता है। इस अवस्था में माता-पिता के द्वारा शिशु को मारना और डांटना नहीं चाहिए।

 

2. जिज्ञासा की संतुष्टि – इस अवस्था में शिशु के मन में अनेक तरह का प्रश्न पूछने और जानने की जिज्ञासा होती है। बच्चा अपने माता-पिता और शिक्षक से प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा को संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं।

 

3 . व्यक्तिगत स्वच्छता की शिक्षा – शिशु जब बड़ा हो जाये तो उसे व्यक्तिगत स्वच्छता के बारे में ज्ञान देना चाहिए जैसे – मंजन करने का, नहाने का, कपड़ा पहनने का आदि ।

 

4. आत्मनिर्भरता का विकास – शिशु को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए। आत्मनिर्भरता से शिशु में स्वयं सीखने, कार्य करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है।

 

5. सामाजिक भावना का विकास – शैशवावस्था में बालक अन्य बालकों के साथ रहना, दूसरों का सहायता करना, दूसरों के कष्ट के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करने जैसी भावना का विकास होने लगता है।

 

अतः विकास के साथ उसका सामाजिक भावना का भी विकास होता है। बालकों के साथ खेलना, उसका सहायता करना, अपने से बड़े लोगों का आदर करना आदि भावना का विकास होता है।

 

6. क्रिया तथा खेल द्वारा शिक्षा – शिशु जन्म से ही क्रियाशील होता है। बालक को खेलने में बहुत मन लगता है। खेल के द्वारा बालक को सीखने का मौका देना चाहिए। स्ट्राँग का कहना है कि शिशु अपने बारे में और संसार के बारे में ज़्यदातर बातें खेल के द्वारा सीखते हैं।

 

7. मानसिक क्रियाओं के अवसर – शिशु को मानसिक क्रियाओं का अवसर देना चाहिए जिससे वह अपने ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अपनी सोच को विकसित कर सकें। बर्ट का कहना है कि कोई भी बालक तीन वर्ष की आयु में किसी भी वस्तु पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

 

शैशवावस्था का निष्कर्ष : –
इतना मस्त और आसान तरीके से मैं समझाया हूँ कि मुझे 100 % भरोसा है कि आपका ये वाला concept क्लियर हो गया होगा। अब आपका एक भी Question exam में नहीं छूटेगा। मैंने जिस तरह से ये topic समझाया है शायद ही किसी book में मिलेगा।

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